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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये


प्राचीन कालमें जब आक्रमणकारियोंने ग्रीसपर आक्रमण किया था, तो विजयके पश्चात् उन्होंने वहांके समस्त सुन्दर मन्दिरों, नयनाभिराम मूर्तियों, कलाकी सर्वोत्कृष्ट कृतियोंको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। जिस-जिस वस्तुमें उन्हें सौन्दर्यके दर्शन हुए, ईर्ष्या और आवेशमें उन सभीको विनष्ट करनेमें वे प्रयत्नशील रहे। यद्यपि उन्होंनं सुन्दर कलाकृतियोंको नष्ट कर दिया, किंतु सौन्दर्यकी कलात्मक मनोवृत्तिका विनाश वे न कर सके। ग्रीसके नागरिकोंके हृदयमें सौन्दर्यानुभूति, सौन्दयाभिव्यक्ति तथा सौन्दर्यका आनन्द लेनेकी भावनाको वे न हटा सके। कोई भी असभ्य शक्तिशाली सभ्य जातिके मनमें रहनेवाली सौन्दर्यकी भावनाको नहीं हटा सकती। ग्रीक कलाके पश्चात् रोमन कलाका जन्म हुआ। जब रोमनिवासियोंने इटलीको विजय किया, वहाँ भी सौन्दर्यकी उपासना फैली। रोमकी कलाकृतियोंके अनुकरण-

पर इटलीकी आश्रर्यचकित करनेवाली कलाका जन्म हुआ। इन कलाकृतियोंके व्यापक प्रसारसे इटलीनिवासियोंकी सुप्त सौन्दर्यभावनाएँ जाग्रत् हो उठीं।

किसी व्यक्तिने प्रेटोसे प्रश्र किया था, 'सबसे उत्कृष्ट शिक्षा कौन-सी है?' प्लेटोने उत्तर दिया, 'सच्ची शिक्षा वह है, जो मनुष्यको शारीरिक एवं आत्मिक सौन्दर्यकी चरम परिणति करा दे। जिस व्यक्तिने सौन्दर्यकी सर्वोच्च साधना की है, वही सच्चे अर्थोंमें शिक्षित है।'

वही पूर्ण परिपक्व जीवन है, जो सौन्दर्य एवं विवेकके सामञ्जस्यसे युक्त है, जिसमें सौन्दर्यके प्रेमके साथ दूसरोंको भी सौन्दर्यानुभूति करानेकी सद्धावना है। मनुष्यका व्यक्तित्व अति विशाल है। अपने व्यक्तित्वके सर्वांगीण विकासके लिए उसे विभिन्न प्रकारके मानसिक एवं शारीरिक भोजनोंकी आवश्यकता है। आप चाहे जो वस्तु कम कर सकते हैं, किंतु स्मरण रखिये, उसीकी कमी आपके व्याक्तित्वमें धीरे-धीर प्रकट हो जायगी। सभी तत्त्वोंके बिना व्यक्तित्वका सर्वांगीण विकास असम्भव है। शरीरको भोजन देकर आप आत्माको भूखा नहीं रख सकते और ऐसा करके आप संतुलित व्यक्तित्व पानेकी आशा नहीं कर सकते। न आप आत्मिक और मानसिक विकास करते हुए शरीरको उपेक्षित कर सकते हैं।

सौन्दर्यके प्रति इच्छा हमारे व्यक्तित्वको एक आवश्यक तत्त्व प्रदान करती है। सौन्दर्यसे विमुख होना इस बातका प्रमाण है कि उसके हृदयमें सौन्दर्यको पहिचानने, अनुभव करनेकी शक्ति नहीं है। दैनिक जीवनमें जो व्यक्ति सौन्दर्यको स्थान देता है, उसकी कलात्मक अभिरुचिका विकास होता है। सौन्दर्य ईश्वरीय गुण है। ईश्वरको हम चिर सुन्दरके रूपमें देखते है। जब हम प्रकृतिके विशाल प्रांगणगें दृष्टिपात करते हैं, तो पाते हैं कि सृष्टिकर्ताने सर्वत्र सौन्दर्य बिखेर दिया है। प्रकृतिकें विहँसते हुए सुन्दर पुष्पोंको देखिये, भ्रमरोंका सुमधुर संगीत सुनिये, पक्षियोंके मनोरम रंगोंका निरीक्षण कीजिये। सुन्दर गंध, सुमधुर ध्वनि, रंगोंकी चित्रशाला प्रकृतिके कोने-कोनेमें लहरा रही है। प्रकृतिके इस सुन्दर रूपका दर्शन कर और उसे हृदयमें उतारकर हम जीवनकी कुरूपतासे अपनी रक्षा कर सकते हैं।

सर्वत्र सौन्दर्यका दर्शन करनेवाला व्यक्ति मानसिक तनावसे दूर रहता है। उसे मायाकी चकाचौंध पथ-च्युत नहीं कर सकती; क्योंकि उसका विवेक सदा जाग्रत रहता है। सच्चा सौन्दर्य-पारखी विवेकबुद्धिको जाग्रत रखता है। सौन्दर्यका विवेकके साथ निकट साहचर्य उसे भाता है। वह 'शिवम् और 'सुन्दरम् को पृथक् नहीं देखता। उसे सौन्दर्यका वही पक्ष पसंद आता है और जो उसके जीवनको ऊँचा उठाता और दुष्प्रवृत्तियोंको परिष्कृत या समुन्नत करता है। सौन्दर्य मनुष्यकी रुचिको, उसके आदर्शों एवं भावनाओंको ऊँचा उठानेवाला होना चाहिये हम उन वस्तुओंमें सौन्दर्यके दर्शन करना सीखें, जो हमारी नैतिक, मानसिक या आत्मिक रुचिको परिष्कृत करनेवाली हैं। हमारी सौन्दर्य-साधना केवल बाह्य जगत्में, अथवा अपने शरीरमात्रमें पाये जानेवाले सौन्दर्यतक ही निर्भर न रह जाय, वरं उसे हमारे आन्तरिक जगत्में भी अपना कार्य करना चाहिये। भावनाओं, विचारों, हृदय तथा मन्तव्योंका सौन्दर्य, जो हमारे अन्तःकरणमें निवास करता है, वही वास्तविक नित्य सौन्दर्य है।

आत्मिक सौन्दर्य या आन्तरिक सौन्दर्य वह आधार-शिला है, जहाँसे हमारी सौन्दर्य-दृष्टिका निर्माण होता है। यदि हमारे अन्तःकरणमें सौन्दर्यकी पृष्ठभूमि बैठ जाय, तो हम सृष्टिमें सर्वत्र विवेकमय सौन्दर्यके दर्शन करने लगें।

यदि आपकी इच्छा है कि विस्तृत अर्थोमें 'पूर्ण मनुष्य' बनें-सम्पूर्ण व्यक्तित्व प्राप्त करें, तो आपको व्यक्तित्वके एक अंगमात्रका विकास कर संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिये। मनका निरीक्षण कर देखिये, आपकी सौन्दर्यानुभूति कितनी विकसित हुई है। स्मरण रखिये, अर्थोपार्जनसे तो आपके व्यक्तित्वका एक छोटा-सा भाग विकसित होता है। यह भाग स्वार्थ एवं अहंसे परिपूर्ण है। इससे मनुष्यकी कलात्मक रुचिका परिष्कार नहीं होता। सौन्दर्यविहीन व्यक्ति मालदार भले ही हो, पर प्रसन्न, शान्तचित्त, कलात्मक नहीं हो सकता। सौन्दर्य-प्रेमका प्रभाव यह होता है कि उससे चरित्र उत्तरोत्तर सुसंस्कृत, उदार, समुन्नत, ऐश्वर्ययुक्त और समृद्धिशाली बन जाता है। कलाविहीन कुरूप गन्दे वातावरणमें विकसित होनेवाले बालकोंमें एक प्रकारकी संकुचितता प्रविष्ट हो जाती है, जो जीवनपर्यन्त दूर नहीं हो पाती। वह बालक बड़ा अभागा है, जिसे पैत्रिक सम्पत्तिके रूपमें मकान, जायदाद, खेत, रुपया-पैसा तो प्राप्त होता है, किंतु उसी अनुपातमें पौरुष, सज्जनता, सौन्दर्य, कलात्मकता और माधुर्य प्राप्त नहीं होता।

बालकोंके व्यक्तित्वके सर्वांगीण विकासके लिये उन्हें सौन्दर्यसे परिपूर्ण वातावरणमें, प्रकृतिके संरक्षणमें सुन्दर सुगन्धित पुष्पोंके मध्य, सुन्दर खिलौने, सुन्दर पुस्तकोंसे परिपूर्ण वातावरणमें रखना चाहिये। सुन्दर वातावरणमें निवास

करनेसे प्रारम्भसे ही उनकी सौन्दर्यानुभूति जाग्रत् हो जाती है। बाह्य सौन्दर्यकी उपासनासे वे क्रमशः आन्तरिक सौन्दर्यकी ओर उन्मुख हो सकते हैं। माताएँ स्वयं स्वच्छ सुन्दर रहें और बच्चोंको अपना अनुकरण करने दें। गृह स्वच्छ सुन्दर रखें, आलमारियों, आलों, मेजों, बिस्तरों और पुस्तकोंको सुन्दर रखनेकी शिक्षा बच्चोंको सदैव देती रहें। इन प्रारम्भिक संस्कारोंसे बच्चोंकी कलात्मक बुद्धि विकसित होगी।

इस आनन्दका अनुभव एक भुक्तभोगी ही कर सकता है, जो मानव-जीवनके सर्वोत्तम गुणों-प्रेम, सौन्दर्य, कलात्मक अभिरुचि, उदारताके विकासके द्वारा, मनुष्यको प्राप्त होता है। भिन्न-भिन्न रूपोंमें सौन्दर्य-भावना, कोमल कल्पनाओंका विकास मानव-चरित्रको समुन्नत करनेवाला है। हमें चाहिये कि प्रारम्भसे ही अपने जीवनको सौन्दर्यसे भर लें। इससे हमारे जीवनमें एक ऐसी रसमयताका प्रवेश होगा, जो समग्र जीवनको आनन्दित रखेगी। इससे न केवल हमारा आनन्द बढ़ जायगा, वरं हमारी कार्यशक्ति भी विकसित हो सकेगी।

हममेंसे प्रत्येकको अपने शरीरको सर्वोत्तम रूपमें रखना चाहिये और शारीरिक दृष्टिकोणसे पूर्ण परिपुष्ट, स्वस्थ, सुन्दर दीखना चाहिये। पोशाक वेशभूषा दिखावटी न हो, सभ्य-शिष्ट व्यक्तियों-जैसी हो। स्मरण रखिये, सरलतामें भी एक सौन्दर्य है। यह सत्य है कि शब्द, रूप, रस, गंध, रंगका अतुल सौन्दर्य संसारको सुन्दर बनाता है, किंतु मन और हृदयका सौन्दर्य तो ईश्वरीय सत्ताके समीप पहुँचा देता है। हम बाह्य सौन्दर्यकी ओर इसीलिये आकृष्ट होते हैं; क्योंकि वह हमें आन्तरिक आत्मिक सौन्दर्यतक ले जाता है; प्रवृत्तियोंको पवित्र कर हमारे मार्गको प्रशस्त करता है। परमेश्वरके अनन्त सौन्दर्यकी अनुभूति हमें जिस दिन हो जायगी, उसी दिन हम सौन्दर्यका वास्तविक अभिप्राय समझ सकेंगे।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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